भाषा शिक्षण के सिद्धान्त एवं शिक्षण सूत्र

Sunil Sagare
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1. भाषा का अर्थ एवं महत्त्व

भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि यह मानव जीवन का आधार है।

  • अभिव्यक्ति का साधन: भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। इसके लिए हम वाचिक ध्वनियों का उपयोग करते हैं।

  • व्यक्तित्व निर्माण: यह हमारे व्यक्तित्व के निर्माण, विकास और हमारी अस्मिता (पहचान) का मुख्य आधार है।

  • सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान: भाषा के बिना मनुष्य अपने इतिहास और परंपरा से कट जाता है। यह हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान बनाने का साधन है।

  • संप्रेषण का माध्यम: मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में एक-दूसरे से जुड़ने और संवाद स्थापित करने के लिए भाषा ही एकमात्र माध्यम है।

  • ज्ञानार्जन का साधन: सांसारिक या आध्यात्मिक, किसी भी प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए भाषा अनिवार्य है। मनुष्य के विकास का आधार उसका ज्ञान है और भाषा उस ज्ञान को प्राप्त करने का साधन है।

  • संस्कृति एवं सभ्यता का विकास: भाषा के माध्यम से ही हम अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों और संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाते हैं।


2. भाषा शिक्षण का अर्थ एवं महत्त्व

भाषा शिक्षण एक प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य बच्चे को प्रभावी ढंग से पढ़ना और लिखना सिखाना है।

  • परिभाषा: यह वह प्रक्रिया है जिसमें इस बात पर बल दिया जाता है कि बच्चा पढ़ना-लिखना कैसे सीखता है और उसे किस प्रकार सिखाया जाए कि वह भाषा का समझ के साथ प्रयोग कर सके।

  • सामाजिक परिवेश: वाइगोत्स्की के अनुसार, बालकों के भाषा सीखने में समाज और परिवार एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

  • शिक्षण नीति: भाषा बाल विकास में सहायक होती है, इसलिए शिक्षक को बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए शिक्षण नीति अपनानी चाहिए।

भाषा शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य

भाषा शिक्षण के उद्देश्यों को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है:

1. वक्ता के कथन को समझने की योग्यता

  • छात्रों में ऐसी क्षमता विकसित करना कि वे वक्ता द्वारा बोले गए शब्दों और उनके हाव-भाव (अशाब्दिक संकेतों) को समझ सकें।

  • सुनी गई बात से संबंध जोड़ने और अनुमान लगाने की क्षमता का विकास करना।

2. समझ के साथ पठन की योग्यता

  • पढ़ना केवल अक्षरों को पहचानना नहीं है, बल्कि अर्थ निर्माण करना है।

  • विद्यार्थी को अपने पूर्व ज्ञान के साथ नई जानकारी को जोड़कर निष्कर्ष निकालने योग्य बनाना।

  • पढ़ते समय विवेचनात्मक दृष्टिकोण रखना, यानी पढ़ते हुए मन में प्रश्न उठाना और उनका उत्तर खोजना।

3. सहज अभिव्यक्ति की क्षमता

  • विद्यार्थी को विभिन्न परिस्थितियों में अपनी बात कहने में समर्थ होना चाहिए।

  • तार्किक, विश्लेषणात्मक और रचनात्मक ढंग से चर्चा में भाग लेने की योग्यता विकसित करना।

4. सुसंगत लेखन

  • लेखन एक यांत्रिक कौशल नहीं है, बल्कि विचारों को व्यवस्थित करने की प्रक्रिया है।

  • विद्यार्थी को विषय का चयन करने, विचारों को तार्किक क्रम में रखने और व्याकरण सम्मत भाषा का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित करना।

  • लेखन को एक 'उत्पाद' के रूप में नहीं, बल्कि एक 'प्रक्रिया' के रूप में देखा जाना चाहिए।

5. विभिन्न विषयों की भाषा समझना

  • भाषा की कक्षा के अलावा भी विज्ञान, गणित, संगीत, खेल-कूद आदि विषयों की अपनी एक विशिष्ट भाषा होती है।

  • भाषा शिक्षण का उद्देश्य बच्चों को इन विभिन्न संदर्भों और विषयों की भाषा को समझने और प्रयोग करने योग्य बनाना है।

6. सृजनात्मकता का विकास

  • भाषा की कक्षा में रटने की जगह कल्पनाशीलता को स्थान मिलना चाहिए।

  • कक्षा का माहौल ऐसा हो जहाँ छात्र बिना किसी डर के अपने विचारों को मौलिक रूप से व्यक्त कर सकें।

7. भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन

  • भाषा शिक्षण के माध्यम से बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है, जैसे—आंकड़ों का संकलन, अवलोकन और वर्गीकरण करना।

  • बहुभाषीय कक्षाओं में यह प्रक्रिया विशेष रूप से प्रभावी होती है जहाँ बच्चे विभिन्न भाषाओं की तुलना कर सकते हैं।


3. भाषा शिक्षण के सिद्धान्त (Principles of Language Teaching)

मनोवैज्ञानिकों ने भाषा शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए कई महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं। इनका पालन करके बच्चों के भाषायी कौशल को समृद्ध किया जा सकता है।

1. अनुबन्धन का सिद्धान्त

  • अवधारणा: भाषा विकास में 'साहचर्य' या जुड़ाव का बड़ा योगदान है। शैशवावस्था में बच्चे अमूर्त (जो दिखाई न दे) शब्दों को नहीं समझ पाते। वे शब्दों को मूर्त वस्तुओं से जोड़कर सीखते हैं।

  • उदाहरण: जब बच्चे को 'कलम' शब्द सिखाया जाता है, तो उसे कलम दिखाई जाती है। 'पानी' कहने पर पानी दिखाया जाता है। इस प्रकार बच्चा वस्तु और शब्द के बीच एक संबंध (अनुबन्धन) बना लेता है और भाषा सीखता है।

2. अनुकरण का सिद्धान्त

  • अवधारणा: मनोवैज्ञानिकों (जैसे चैपिनीज, शर्ली, वैलेण्टाइन) का मत है कि बच्चे अनुकरण (नकल) द्वारा सीखते हैं।

  • महत्त्व: बच्चा अपने परिवार और समाज के लोगों को जैसा बोलते हुए सुनता है, वैसा ही बोलने का प्रयास करता है।

  • प्रभाव: यदि परिवार या शिक्षक का उच्चारण अशुद्ध है, तो बच्चे की भाषा में भी वह दोष आ जाएगा। इसलिए शिक्षक का उच्चारण आदर्श होना चाहिए।

3. अभिप्रेरणा एवं रुचि का सिद्धान्त

  • अवधारणा: सीखने के लिए रुचि और प्रेरणा सबसे आवश्यक है। बिना रुचि के जबरदस्ती भाषा नहीं सिखाई जा सकती।

  • शिक्षक का कार्य: पाठ्य सामग्री का चयन बच्चों की रुचि के अनुसार होना चाहिए। शिक्षण के दौरान बच्चों को लगातार प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि उनका उत्साह बना रहे।

4. क्रियाशीलता का सिद्धान्त

  • अवधारणा: इसे 'करके सीखने' का सिद्धान्त भी कहते हैं। जब बच्चे स्वयं किसी गतिविधि में भाग लेते हैं, तो वे जल्दी सीखते हैं।

  • गतिविधियाँ: छात्रों से प्रश्न पूछना, नाटकों में अभिनय कराना, गीत गवाना, और अभ्यास कार्य कराना। इससे बच्चे सक्रिय रहते हैं और कक्षा नीरस नहीं होती।

5. अभ्यास का सिद्धान्त

  • कथन: थॉर्नडाइक के अनुसार, "भाषा एक कौशल है और इसका विकास अभ्यास पर ही निर्भर है।"

  • महत्त्व: भाषा विज्ञान और कला दोनों है। जिस प्रकार संगीत या चित्रकारी के लिए अभ्यास जरूरी है, वैसे ही भाषा के शुद्ध उच्चारण और लेखन के लिए निरंतर अभ्यास आवश्यक है।

  • शिक्षक का कार्य: श्रुतलेख, सुलेख, और वाचन का नियमित अभ्यास कराना।

6. आवृत्ति का सिद्धान्त

  • अवधारणा: 'आवृत्ति' का अर्थ है दोहराना। मनोवैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि सीखी हुई बात को जितना अधिक दोहराया जाएगा, वह उतनी ही देर तक याद रहेगी।

  • प्रयोग: भाषा शिक्षण में कठिन शब्दों और नियमों की पुनरावृत्ति करानी चाहिए।

7. साहचर्य का सिद्धान्त

  • अवधारणा: बच्चे सुनकर बोलना सीखते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें बोलने वालों का पर्याप्त साथ (साहचर्य) मिलना चाहिए।

  • उदाहरण: बच्चा 'माँ' शब्द का अर्थ तभी समझता है जब वह शब्द के साथ अपनी माँ को देखता है। जब तक शब्द और वस्तु के बीच संबंध स्थापित नहीं होता, भाषायी विकास अधूरा रहता है।

8. अनुपात एवं क्रम का सिद्धान्त

  • अवधारणा: भाषा के चार प्रमुख कौशल हैं—श्रवण (सुनना), वाचन (बोलना), पठन (पढ़ना), और लेखन (लिखना)।

  • नियम: ये सभी कौशल एक-दूसरे से जुड़े हैं। भाषा शिक्षण का उद्देश्य इन चारों में संतुलन (अनुपात) बनाए रखना है। यदि बच्चा केवल बोलने में तेज है लेकिन लिख नहीं पाता, तो शिक्षण अधूरा है।

9. चयन का सिद्धान्त

  • अवधारणा: एक शिक्षक को यह ज्ञान होना चाहिए कि किस पाठ को पढ़ाने के लिए कौन सी विधि सबसे उपयुक्त होगी।

  • महत्त्व: विषय-वस्तु को सरल और सहज बनाने के लिए सही शिक्षण पद्धति और सामग्री का 'चयन' करना अध्यापक की कुशलता पर निर्भर करता है।

10. बाल-केन्द्रिता का सिद्धान्त

  • अवधारणा: आधुनिक शिक्षा में बालक ही केंद्र बिंदु है।

  • महत्त्व: शिक्षण कार्य करते समय शिक्षक को अपनी विद्वता दिखाने के बजाय बच्चे की क्षमता, रुचि और स्तर का ध्यान रखना चाहिए। पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियाँ बच्चे के अनुकूल होनी चाहिए।

11. मातृभाषा शिक्षण का सिद्धान्त

  • अवधारणा: बालक को शिक्षा उसकी मातृभाषा में दी जानी चाहिए।

  • तर्क: मातृभाषा में बच्चा शब्दों के साथ वस्तुओं का संबंध आसानी से स्थापित कर लेता है। इससे उसके विचार स्पष्ट और स्थायी बनते हैं। विदेशी भाषा में रटने की प्रवृत्ति बढ़ती है, जबकि मातृभाषा में मौलिक चिंतन बढ़ता है।

12. पुनर्बलन का सिद्धान्त

  • प्रतिपादक: बी.एफ. स्किनर।

  • अवधारणा: जब सीखने की प्रक्रिया में बच्चे को सफलता मिलती है या उसकी प्रशंसा की जाती है, तो उसे 'पुनर्बलन' मिलता है। इससे वह और अधिक उत्साह के साथ सीखता है।

  • शिक्षक का कार्य: सही उत्तर देने पर बच्चे को शाबाशी देना या पुरस्कृत करना।

13. वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त

  • अवधारणा: कक्षा का प्रत्येक छात्र दूसरे से भिन्न होता है। किसी का उच्चारण शुद्ध नहीं होता, तो किसी की लिखावट खराब होती है। कोई जल्दी सीखता है, तो कोई देर से।

  • समाधान: शिक्षक को सभी बच्चों को एक ही लाठी से नहीं हाँकना चाहिए, बल्कि प्रत्येक बच्चे की व्यक्तिगत कठिनाइयों को समझकर शिक्षण करना चाहिए।

14. जीवन समन्वय का सिद्धान्त

  • अवधारणा: शिक्षा का उद्देश्य जीवन की तैयारी है। बच्चे उन विषयों में अधिक रुचि लेते हैं जो उनके वास्तविक जीवन से जुड़े होते हैं।

  • शिक्षक का कार्य: उदाहरण और पाठ्य सामग्री ऐसी हो जो बच्चों के दैनिक जीवन, घर और परिवेश से संबंधित हो।

15. निश्चित उद्देश्य एवं पाठ्य सामग्री का सिद्धान्त

  • अवधारणा: शिक्षण का कार्य निरुद्देश्य नहीं होना चाहिए।

  • योजना: कक्षा में जाने से पहले शिक्षक को यह स्पष्ट होना चाहिए कि आज के पाठ का उद्देश्य क्या है (जैसे—नए शब्द सिखाना, या उच्चारण सुधारना)। उसी के अनुसार पाठ्य सामग्री तैयार करनी चाहिए।


4. समग्र भाषा पद्धति (Whole Language Approach)

यह भाषा सिखाने की एक आधुनिक और मनोवैज्ञानिक विधि है।

  • मूल विचार: इस विधि में वर्णमाला के अक्षरों को रटाने के बजाय, भाषा को 'टुकड़ों' में नहीं बल्कि 'समग्र' (Whole) रूप में सिखाया जाता है।

  • प्रक्रिया: बच्चों को वाक्यों और शब्दों को संदर्भ के साथ पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

  • गतिविधि: कक्षा में कहानी या कविता सुनाई जाती है। इससे बच्चे कहानी के संदर्भ से शब्दों का अर्थ अनुमान लगाना सीखते हैं। यह विधि अर्थ निर्माण और वाक्य संरचना की समझ पर बल देती है।


5. भाषा शिक्षण के सूत्र (Maxims of Language Teaching)

शिक्षण सूत्र वे सामान्य नियम हैं जो पढ़ाने की प्रक्रिया को सरल और प्रभावशाली बनाते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने अनुभव और शोध के आधार पर इनका प्रतिपादन किया है।

1. मूर्त से अमूर्त की ओर

  • अर्थ: पहले दिखाई देने वाली (मूर्त) वस्तुओं का ज्ञान देना, फिर विचारों (अमूर्त) की ओर ले जाना।

  • कारण: बच्चों का मानसिक विकास शुरुआत में इतना नहीं होता कि वे अमूर्त संकल्पनाओं को समझ सकें।

  • उदाहरण: पहले 'सेब' (मूर्त वस्तु) दिखाएं, फिर उसकी मिठास या गुणों (अमूर्त) के बारे में बताएं।

2. ज्ञात से अज्ञात की ओर

  • अर्थ: जो बच्चा पहले से जानता है, उससे शुरुआत करके नई जानकारी देना।

  • महत्त्व: नया ज्ञान हमेशा पुराने ज्ञान की नींव पर ही टिकता है।

  • उदाहरण: बच्चे को अगर 'नदी' के बारे में पढ़ाना है, तो पहले उसके गाँव के तालाब या पानी के स्रोतों (ज्ञात) के बारे में बात करें, फिर नदी (अज्ञात) की ओर बढ़ें।

3. अनिश्चित से निश्चित की ओर

  • अर्थ: बच्चे के मन में कई धारणाएं अस्पष्ट और अनिश्चित होती हैं। शिक्षण के द्वारा उन्हें स्पष्ट और निश्चित करना।

  • उदाहरण: बच्चा 'कुत्ता' और 'बिल्ली' में अंतर शायद स्पष्ट रूप से न जानता हो (अनिश्चित), शिक्षक चित्रों और लक्षणों के माध्यम से इस ज्ञान को पक्का (निश्चित) करता है।

4. विश्लेषण से संश्लेषण की ओर

  • अर्थ: पहले विषय-वस्तु को अलग-अलग भागों में तोड़कर समझाना (विश्लेषण), फिर अंत में सबको जोड़कर सारांश बताना (संश्लेषण)।

  • उदाहरण: वाक्य सिखाते समय पहले शब्दों और व्याकरण (विश्लेषण) को समझाना, फिर पूरे वाक्य का अर्थ (संश्लेषण) बताना।

5. आगमन से निगमन की ओर

  • अर्थ: पहले उदाहरण देना, फिर नियम बताना।

  • उपयोग: यह व्याकरण सिखाने की सर्वश्रेष्ठ विधि है।

  • उदाहरण: पहले संज्ञा के कई उदाहरण (राम, दिल्ली, किताब) दें, फिर संज्ञा की परिभाषा (नियम) बताएं। (निगमन विधि में पहले नियम बताया जाता है, जो रटने पर बल देता है)।

6. मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर

  • अर्थ: शिक्षण का क्रम बच्चों की रुचि और आयु (मनोवैज्ञानिक) के अनुसार होना चाहिए, न कि विषय के क्रम (तार्किक) के अनुसार।

  • उदाहरण: हो सकता है तार्किक रूप से व्याकरण पहले पढ़ाना चाहिए, लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप से बच्चा पहले कविता या कहानी में रुचि लेता है। इसलिए पहले कहानी पढ़ाएं।

7. विशेष से सामान्य की ओर

  • अर्थ: पहले विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत करना, फिर सामान्य सिद्धान्त की ओर बढ़ना। यह आगमन विधि जैसा ही है।

  • प्रक्रिया: पहले क्रियाओं को प्रस्तुत किया जाए, तत्पश्चात् सामान्य निष्कर्षों पर पहुँचा जाए।

8. सरल से जटिल की ओर

  • अर्थ: पहले आसान चीजें सिखाना, फिर कठिन।

  • लाभ: इससे बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ता है।

  • उदाहरण: पहले सरल शब्द और छोटे वाक्य सिखाएं, बाद में संयुक्त वाक्य और मुहावरे।


निष्कर्ष: एक सफल भाषा शिक्षक के लिए इन सिद्धान्तों और सूत्रों का ज्ञान होना अनिवार्य है। ये न केवल शिक्षण को प्रभावी बनाते हैं, बल्कि विद्यार्थियों में भाषा के प्रति रुचि और आत्मविश्वास भी जगाते हैं। CTET की परीक्षा में इन सिद्धान्तों के व्यावहारिक प्रयोग (Application based) पर प्रश्न पूछे जाते हैं, इसलिए इनका गहन अध्ययन आवश्यक है।



भाषा शिक्षण के सिद्धान्त एवं शिक्षण सूत्र

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