अ. बाल विकास की अवधारणा
बाल विकास का तात्पर्य बालक के जन्म से लेकर किशोरावस्था तक होने वाले क्रमिक और सकारात्मक परिवर्तनों से है। यह केवल शारीरिक बढ़ना नहीं है, बल्कि इसमें मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक परिपक्वता भी शामिल है।
विकास की परिभाषा: विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भाधान से शुरू होकर मृत्यु पर्यंत चलती है।
वृद्धि और विकास में अंतर:
वृद्धि (Growth) केवल शारीरिक आकार और वजन में बढ़ोतरी है (मात्रात्मक)।
विकास (Development) में शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ कार्यक्षमता और व्यवहार में सुधार भी शामिल है (गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों)।
प्रकृति: विकास की प्रकृति लचीली होती है, इसे वातावरण और पोषण द्वारा सुधारा जा सकता है।
ब. बाल विकास के प्रमुख सिद्धांत
बालकों का विकास कुछ निश्चित नियमों और सिद्धांतों पर आधारित होता है। इन सिद्धांतों को समझकर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि बालक का विकास किस दिशा में हो रहा है।
1. निरंतरता का सिद्धांत
विकास एक कभी न रुकने वाली प्रक्रिया है। यह माँ के गर्भ से शुरू होती है और मृत्यु तक चलती रहती है।
उदाहरण: एक बच्चा रातों-रात बोलना नहीं सीखता। पहले वह ध्वनि निकालता है, फिर शब्द बोलता है, और अंत में वाक्य बनाना सीखता है। यह प्रक्रिया धीमी गति से निरंतर चलती रहती है।
मुख्य बिंदु: विकास की गति कभी तेज हो सकती है और कभी धीमी, लेकिन यह कभी रुकती नहीं है।
2. व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत
दुनिया के किन्हीं भी दो बच्चों का विकास एक समान नहीं होता। जुड़वा बच्चों में भी शारीरिक, मानसिक और स्वभावगत अंतर पाए जाते हैं।
कारण: यह भिन्नता वंशानुक्रम (Heredity) और वातावरण (Environment) के कारण होती है।
उदाहरण: एक ही उम्र के दो बच्चों में से एक जल्दी चलना सीख सकता है, जबकि दूसरा थोड़ा समय ले सकता है।
3. विकास की दिशा का सिद्धांत
विकास की एक निश्चित दिशा होती है। यह दिशा दो प्रकार की होती है:
क) मस्तकाधोमुखी (Cephalocaudal Sequence): इसमें विकास 'सिर से पैर' की ओर होता है।
प्रक्रिया: गर्भ में सबसे पहले बच्चे का सिर विकसित होता है। जन्म के बाद भी बच्चा सबसे पहले अपनी गर्दन संभालना सीखता है, फिर धड़ और अंत में पैरों पर नियंत्रण पाता है।
ख) निकट-दूर का नियम (Proximodistal Sequence): इसमें विकास 'केंद्र से बाहर' की ओर होता है।
प्रक्रिया: पहले रीढ़ की हड्डी या धड़ का विकास होता है, उसके बाद भुजाओं का, फिर हाथों का और अंत में उंगलियों का विकास होता है।
4. एकीकरण का सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार, बालक पहले अपने संपूर्ण अंग का प्रयोग करता है और बाद में उस अंग के विशिष्ट भागों का। अंत में वह उन सभी भागों में एकीकरण (तालमेल) स्थापित करता है।
उदाहरण: पहले बच्चा किसी वस्तु को पकड़ने के लिए पूरा हाथ मारता है। बाद में वह उसी वस्तु को पकड़ने के लिए केवल अपनी उंगलियों का इस्तेमाल करना सीख जाता है।
5. समान प्रतिमान का सिद्धांत
प्रत्येक प्रजाति (Species) का विकास अपने ही जाति के अनुरूप होता है। दुनिया भर के मानव शिशुओं के विकास का पैटर्न (क्रम) एक जैसा होता है।
तथ्य: चाहे बच्चा भारत का हो या अमेरिका का, वह पहले रेंगना सीखेगा, फिर खड़ा होना और अंत में चलना। ऐसा नहीं हो सकता कि बच्चा पहले दौड़ना सीख ले और बाद में बैठना।
6. परस्पर संबंध का सिद्धांत
बालक के विकास के सभी पहलू (शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक) एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
उदाहरण: यदि कोई बच्चा शारीरिक रूप से कमजोर या बीमार है, तो इसका नकारात्मक प्रभाव उसके मानसिक विकास और खेलकूद में भाग लेने की क्षमता (सामाजिक विकास) पर भी पड़ेगा।
निष्कर्ष: सर्वांगीण विकास के लिए सभी पक्षों का स्वस्थ होना जरूरी है।
7. आंशिक पुनर्बलन का सिद्धांत
यद्यपि यह मुख्य रूप से अधिगम का सिद्धांत है, लेकिन विकास के संदर्भ में इसका अर्थ है कि बच्चों के सही व्यवहार या विकास के प्रयासों को समय-समय पर सराहना (Reinforcement) मिलनी चाहिए।
महत्व: यदि बच्चे की नई कोशिशों (जैसे पहली बार चलने का प्रयास) को माता-पिता द्वारा सराहा जाता है, तो उस क्रिया के दोहराए जाने और विकसित होने की संभावना बढ़ जाती है।
8. विकास की भविष्यवाणी की जा सकती है
चूंकि विकास एक निश्चित क्रम का पालन करता है, इसलिए हम बच्चे की वर्तमान गति को देखकर उसके भविष्य के विकास का अनुमान लगा सकते हैं।
उदाहरण: बच्चे की कलाई की हड्डियों का एक्स-रे देखकर चिकित्सक यह बता सकते हैं कि भविष्य में बच्चे की अनुमानित लंबाई कितनी होगी।
उपयोग: इससे माता-पिता और शिक्षक बच्चे की रुचि और क्षमता के अनुसार उसे दिशा दे सकते हैं।
9. सामान्य से विशिष्ट की ओर
विकास की प्रक्रिया में बालक पहले सामान्य व्यवहार करता है और बाद में विशिष्ट व्यवहार की ओर बढ़ता है।
उदाहरण 1 (शारीरिक): बच्चा पहले किसी भी व्यक्ति को देखकर मुस्कुरा देता है (सामान्य), लेकिन बाद में वह केवल अपनी माँ या परिचितों को देखकर ही मुस्कुराता है (विशिष्ट)।
उदाहरण 2 (भाषा): बच्चा पहले सभी पुरुषों को 'पापा' कह सकता है, लेकिन समझ विकसित होने पर वह केवल अपने पिता को ही 'पापा' कहता है।
10. वर्तुलाकार बनाम लंबवत विकास
विकास कभी भी एक सीधी रेखा (Linear) में नहीं होता। यह वर्तुलाकार (Spiral) होता है।
अर्थ: बच्चा एक निश्चित स्तर तक आगे बढ़ता है, फिर वह परिपक्वता प्राप्त करने के लिए थोड़ा रुकता है (विश्राम करता है), अपने विकास को मजबूत करता है और फिर आगे बढ़ता है। इसे ही वर्तुलाकार प्रगति कहते हैं।
क. बाल विकास के सिद्धांतों का शैक्षिक महत्व
एक शिक्षक के लिए इन सिद्धांतों को जानना क्यों जरूरी है?
पाठ्यक्रम निर्माण: शिक्षक बच्चों की आयु और मानसिक स्तर के अनुसार पाठ्यक्रम तैयार कर सकते हैं।
व्यक्तिगत शिक्षण: शिक्षक यह समझते हैं कि सभी बच्चे समान नहीं हैं, इसलिए वे कमजोर और प्रतिभाशाली बच्चों के लिए अलग-अलग शिक्षण विधियाँ अपना सकते हैं।
उचित उम्मीदें: यह जानकर कि विकास की एक निश्चित गति होती है, शिक्षक और माता-पिता बच्चे से अवास्तविक उम्मीदें (जैसे 3 साल के बच्चे से निबंध लिखवाना) नहीं करेंगे।
समस्या समाधान: यदि कोई बच्चा सामान्य क्रम से बहुत पिछड़ रहा है, तो शिक्षक समय रहते समस्या की पहचान कर सकते हैं।
वातावरण निर्माण: विकास में वातावरण की भूमिका को समझकर, विद्यालय में एक स्वस्थ और प्रेरक माहौल बनाया जा सकता है।
ड. बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक
बालक का विकास मुख्य रूप से दो प्रकार के कारकों से प्रभावित होता है:
1. आंतरिक कारक (Internal Factors)
ये वे कारक हैं जो बालक के भीतर मौजूद होते हैं या उसे जन्मजात मिलते हैं।
वंशानुक्रम: माता-पिता से मिलने वाले गुण, रंग-रूप, और शारीरिक संरचना।
बुद्धि: बालक की सीखने की क्षमता और निर्णय लेने की शक्ति।
संवेगात्मक स्थिति: बालक का स्वभाव (क्रोधी या शांत)।
शारीरिक स्वास्थ्य: जन्मजात बीमारियाँ या शारीरिक कमजोरी।
2. बाह्य कारक (External Factors)
ये वे कारक हैं जो बालक को उसके आसपास के माहौल से मिलते हैं।
वातावरण: घर और पड़ोस का माहौल।
पोषण: गर्भावस्था के दौरान माँ का भोजन और जन्म के बाद बच्चे का आहार।
परिवार और विद्यालय: माता-पिता का व्यवहार और स्कूल में मिलने वाली शिक्षा।
सामाजिक-आर्थिक स्थिति: परिवार की आर्थिक स्थिति भी बच्चे के विकास के अवसरों को प्रभावित करती है।
इ. बाल मनोविज्ञान: व्याख्या, उपयोगिता एवं महत्व
व्याख्या: बाल मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जो गर्भकाल से लेकर किशोरावस्था तक बालक के व्यवहार, मानसिक प्रक्रियाओं और विकास का वैज्ञानिक अध्ययन करती है।
उपयोगिता एवं महत्व:
बालक को समझना: यह शिक्षक को बताता है कि बच्चा 'क्या' सोच रहा है और 'क्यों' ऐसा व्यवहार कर रहा है।
शिक्षण विधियों में सुधार: रटने की बजाय 'खेल विधि' और 'करके सीखने' पर जोर देना बाल मनोविज्ञान की ही देन है।
अनुशासन: डंडे के जोर पर अनुशासन बनाए रखने की जगह, बच्चे की भावनाओं को समझकर आत्मानुशासन विकसित करना।
निर्देशन और परामर्श: समस्याग्रस्त बालकों को सही मार्गदर्शन देने में बाल मनोविज्ञान सहायक है।
बाल विकास के सिद्धान्त
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