1. मूल्यांकन और आकलन का अर्थ व संकल्पना
मूल्यांकन केवल परीक्षा लेना नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक प्रक्रिया है।
मूल्यांकन की परिभाषा: यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा अधिगम परिस्थितियों तथा सीखने के अनुभवों के लिए प्रयुक्त की जाने वाली विधियों की उपयोगिता की जाँच की जाती है।
रॉस का कथन: मूल्यांकन का प्रयोग बच्चे के सम्पूर्ण व्यक्तित्व अथवा किसी की समूची स्थितियों की जाँच प्रक्रिया के लिए किया जाता है।
शिक्षण में स्थान: मूल्यांकन शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है। यह शिक्षक को यह जानने में मदद करता है कि उसकी शिक्षण विधियां कितनी सफल रही हैं।
उद्देश्य: इसका मुख्य उद्देश्य यह देखना है कि पूर्व-निर्धारित शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हुई है या नहीं। यदि नहीं, तो किस सीमा तक कमी रह गई है।
पुनर्बलन: यह शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों के लिए पुनर्बलन का कार्य करता है। इससे बच्चों को अपनी प्रगति और शिक्षकों को अपने पढ़ाने के तरीके में सुधार करने का मौका मिलता है।
आकलन और मूल्यांकन में अंतर:
आकलन: इसका उद्देश्य बालकों की अभिवृत्ति, क्षमता और ज्ञान के स्तर का मापन करना है। यह प्रक्रिया के दौरान चलता रहता है। यह मूल्यांकन की एक संक्षिप्त प्रक्रिया है।
मूल्यांकन: यह एक विस्तृत प्रक्रिया है जो निर्णय लेने पर केंद्रित होती है। इसमें मूल्य निर्धारण किया जाता है।
2. मूल्यांकन के प्रमुख प्रकार
मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाविदों ने मूल्यांकन प्रणाली को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया है:
A. निर्माणात्मक या रचनात्मक मूल्यांकन
इसे सीखने के लिए आकलन भी कहा जा सकता है।
यह बालकों के विकास की लगातार प्रतिपुष्टि यानी फीडबैक के लिए उपयोग किया जाता है।
यह शिक्षण प्रक्रिया के दौरान, पाठ पढ़ाते समय या अध्याय के बीच-बीच में किया जाता है।
शिक्षक यह जाँचते हैं कि बच्चों ने ज्ञान को कितना ग्रहण किया है।
इसका उद्देश्य छात्र की कमियों को जानकर उन्हें तुरंत सुधारना है।
B. योगात्मक या संकलनात्मक मूल्यांकन
यह मूल्यांकन सत्र की समाप्ति पर या एक निश्चित अवधि के बाद होता है।
इसे 'अंतिम मूल्यांकन' भी कहते हैं।
इसके अंतर्गत शिक्षक यह जाँचते हैं कि पूरे सत्र में बच्चों ने किस सीमा तक ज्ञान प्राप्त किया है।
वार्षिक परीक्षाएं और ग्रेडिंग सिस्टम इसका उदाहरण हैं।
यह निर्णय लेने या पास-फेल करने पर केंद्रित होता है।
C. निदानात्मक मूल्यांकन
जो विद्यार्थी पढ़ाई के दौरान असफल होते हैं या पिछड़ जाते हैं, उनके लिए यह अति आवश्यक है।
इसका मुख्य कार्य विद्यार्थियों की असफलता और कठिनाइयों के कारणों का पता लगाना है।
जैसे डॉक्टर बीमारी का निदान करता है, वैसे ही शिक्षक अधिगम की समस्याओं का निदान करता है।
निदान के बाद ही उपचारात्मक शिक्षण दिया जाता है।
3. अधिगम में मूल्यांकन के दृष्टिकोण
CTET में इस भाग से प्रश्न अक्सर पूछे जाते हैं कि मूल्यांकन किस नजरिए से किया जा रहा है:
सीखने के लिए आकलन: यह शिक्षण प्रक्रिया के दौरान होता है। इसका उद्देश्य सुधार करना है। (उदाहरण: कक्षा में प्रश्न पूछना, बावर्ची द्वारा खाना चखना)।
सीखने का आकलन: यह शिक्षण प्रक्रिया के अंत में होता है। इसका उद्देश्य उपलब्धि का मापन करना है। (उदाहरण: वार्षिक परीक्षा, रिपोर्ट कार्ड)।
सीखने के रूप में आकलन: इसमें विद्यार्थी स्वयं अपने काम का आकलन करते हैं या सहपाठी एक-दूसरे का आकलन करते हैं। यह आत्म-चिंतन को बढ़ावा देता है।
4. विद्यालय आधारित मूल्यांकन
बाहरी बोर्ड परीक्षाओं के विपरीत, यह मूल्यांकन स्कूल स्तर पर ही किया जाता है।
परिभाषा: विद्यालय आधारित मूल्यांकन वह है जो विद्यालय द्वारा विकसित नियमों और बोर्ड के दिशा-निर्देशों के अनुसार स्कूल के ही अध्यापकों द्वारा किया जाता है।
आवश्यकता: बाहरी परीक्षाएं अक्सर रटने पर जोर देती हैं और बच्चे के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को नहीं माप पातीं। विद्यालय आधारित मूल्यांकन बच्चे को बेहतर जानता है।
बाल-केंद्रित: यह पूरी तरह से बाल-केंद्रित और विद्यालय-केंद्रित होता है। बाहरी एजेंसी का इसमें हस्तक्षेप नहीं होता।
बहुआयामी: यह शिक्षार्थी के सामाजिक, भावात्मक, शारीरिक और बौद्धिक विकास सभी को शामिल करता है।
पारदर्शिता: यह अधिक पारदर्शी होता है और इसमें शिक्षक, छात्र और माता-पिता के बीच सहयोग की गुंजाइश अधिक होती है।
शिक्षकों की भूमिका: अध्यापक अपने विद्यार्थियों के बारे में सबसे अधिक जानते हैं, इसलिए उन्हें ही मूल्यांकन की जिम्मेदारी दी जाती है।
5. सतत एवं व्यापक मूल्यांकन (CCE)
CBSE और शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत CCE को लागू किया गया ताकि बच्चों पर परीक्षा का दबाव कम हो।
'सतत' का अर्थ:
मूल्यांकन एक बार की घटना नहीं है, बल्कि यह पूरे वर्ष चलने वाली निरंतर प्रक्रिया है।
इसमें नियमितता, अधिगम अंतरालों का निदान और सुधारात्मक उपाय शामिल हैं।
इसमें कक्षा के दौरान होने वाला आकलन और आवधिक परीक्षाएं दोनों शामिल हैं।
'व्यापक' का अर्थ:
केवल किताबी ज्ञान (शैक्षिक पक्ष) का ही नहीं, बल्कि खेल, संगीत, कला, व्यवहार (सह-शैक्षिक पक्ष) का भी मूल्यांकन होना चाहिए।
इसमें बच्चे के व्यक्तित्व के सभी पहलू शामिल होते हैं - ज्ञान, समझ, व्याख्या, अनुप्रयोग, विश्लेषण, मूल्यांकन और सृजनात्मकता।
सह-शैक्षिक क्षेत्रों में जीवन कौशल, अभिवृत्तियाँ और मूल्य शामिल होते हैं।
CCE के उद्देश्य:
बोधात्मक, मनो-प्रेरक और भावात्मक कौशलों का विकास करना।
याद रखने (रटने) के बजाय सीखने की प्रक्रिया पर बल देना।
मूल्यांकन को शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का अविभाज्य हिस्सा बनाना।
नियमित निदान के आधार पर उपचारात्मक शिक्षण देना।
बच्चों पर पड़ने वाले दबाव को कम करना।
अंकों के स्थान पर ग्रेड का उपयोग करना ताकि अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा कम हो।
6. मूल्यांकन की प्रमुख तकनीकें और साधन
सतत एवं व्यापक मूल्यांकन के लिए शिक्षक विभिन्न उपकरणों का प्रयोग करते हैं:
A. निरीक्षण या अवलोकन
यह छोटे बच्चों के लिए सबसे उत्तम विधि है।
अध्यापक प्राकृतिक परिस्थिति में बालक का मूल्यांकन करते हैं और बच्चों को पता भी नहीं चलता।
इसमें शिक्षक बच्चों के व्यवहार, रुचि और गतिविधियों को ध्यान से देखते हैं।
B. साक्षात्कार
यह मौखिक पूछताछ की विधि है।
इससे शिक्षक बालक की प्रगति को जान पाते हैं।
प्रयास यह होना चाहिए कि बच्चा डरे नहीं और खुलकर अपनी बात कह सके।
C. प्रश्नावली
यह प्रश्नों की एक सुनियोजित सूची होती है जिसका उत्तर छात्र लिखकर देते हैं।
छोटे बच्चों (0-6 वर्ष) के लिए चित्र प्रश्नावली का प्रयोग किया जाता है।
D. जांच सूची
इसमें शिक्षक बालक के विशिष्ट तथ्यों जैसे भाषा प्रयोग, सामाजिकता, व्यवहार आदि को नोट करते हैं।
यह 'हाँ' या 'नहीं' या विशिष्ट श्रेणियों में हो सकती है।
E. पोर्टफोलियो
यह सबसे महत्वपूर्ण साधन है।
इसमें विद्यार्थी के द्वारा एक निश्चित समय अवधि में किए गए कार्यों का संग्रह होता है।
इसमें चित्रकला, लेखन कार्य, प्रोजेक्ट रिपोर्ट, टेस्ट पेपर आदि रखे जाते हैं।
यह बच्चे की क्रमिक प्रगति का सबसे अच्छा सबूत होता है।
इससे बच्चे की उपलब्धियों और कमियों दोनों का पता चलता है।
F. वृत्तान्त अभिलेख (Anecdotal Records)
इसमें बच्चे के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं या व्यवहारों का लिखित वर्णन होता है।
यह किसी विशिष्ट परिस्थिति में बच्चे की प्रतिक्रिया को दर्शाता है।
7. शैक्षिक उद्देश्यों का वर्गीकरण (ब्लूम की टैक्सोनॉमी)
बेंजामिन ब्लूम ने शैक्षिक उद्देश्यों को तीन मुख्य पक्षों में बांटा है:
1. ज्ञानात्मक पक्ष:
इसका संबंध दिमाग और सोचने की क्षमता से है।
इसमें निम्न स्तर से उच्च स्तर तक शामिल हैं: ज्ञान, बोध, अनुप्रयोग, विश्लेषण, संश्लेषण और मूल्यांकन।
2. भावात्मक पक्ष:
इसका संबंध भावनाओं, रुचियों और मूल्यों से है।
इसमें शामिल हैं: ध्यान देना, अनुक्रिया करना, आकलन करना, संगठन करना और मूल्यों को अपनाना।
3. क्रियात्मक या मनोगत्यात्मक पक्ष:
इसका संबंध शारीरिक क्रियाओं और कौशल से है।
जैसे: लिखना, खेलना, चित्र बनाना, उपकरण चलाना।
8. अधिगम में अच्छे मूल्यांकन के मानदंड
एक अच्छे मूल्यांकन में निम्नलिखित गुण होने चाहिए:
वैधता: जिस उद्देश्य के लिए परीक्षा ली जा रही है, वह उसे पूरा करे।
विश्वसनीयता: बार-बार जाँचने पर भी परिणाम एक समान आए।
वस्तुनिष्ठता: जाँचने वाले की व्यक्तिगत राय का प्रभाव अंकों पर न पड़े।
व्यावहारिकता: परीक्षा का आयोजन करना संभव और आसान हो।
9. शिक्षक के लिए महत्वपूर्ण निर्देश
बच्चों की तुलना कभी भी एक-दूसरे से नहीं करनी चाहिए।
'मंदबुद्धि', 'कमजोर' या 'होशियार' जैसे लेबल बच्चों पर नहीं लगाने चाहिए।
मूल्यांकन का प्रयोग बच्चों को डराने के लिए नहीं, बल्कि सुधारने के लिए करना चाहिए।
केवल कागज-पेंसिल परीक्षा (लिखित परीक्षा) पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि विविध गतिविधियों का प्रयोग करना चाहिए।
विद्यार्थियों को अपना मूल्यांकन स्वयं करने (स्व-मूल्यांकन) का अवसर देना चाहिए।
10. निदान और उपचार
निदानात्मक शिक्षण: छात्र की त्रुटियों और गलत अवधारणाओं के कारणों को खोजना।
उपचारात्मक शिक्षण: कारणों का पता चलने के बाद उन्हें दूर करने के लिए दोबारा पढ़ाना या अलग तरीके से समझाना।
यह अध्याय स्पष्ट करता है कि मूल्यांकन का लक्ष्य बच्चे को 'पास' या 'फेल' करना नहीं, बल्कि उसकी सीखने की यात्रा को सुगम और प्रभावी बनाना है।
अधिगम का मूल्यांकन
Mock Test: 20 Questions | 20 Minutes
